Sunday, 14 December 2008

पत्थर पे पत्र

हम भी देखे
तुझे
कैसी हरियाली
तेरे आँचल में
सुना बहुत
मौका मिला
देखेंगे हम

सूना शहर
हर शाम को
सपनों में, पर
दो मुझे आँख
हाथ औ, दिल
मैं लिख सकूँ
पत्थर पे पत्र
तेरे नाम

हम भी देखें
सर्प सी
पगदंदिया
और याद आ जाए हमें
जीवन की राह

शायद सुनें हम कूक
तो भूलें
हम आह, शायद
दिन में हो रात
सूरज या चाँद?
सोचेंगे दाल के
हम पैर झरने में
किसी निस्तेज

हम भी देखें
चढ़ के किसी पहाड़ पे
गहरी घटी
और सहम मर
हम कुछ और
सरक जाए
तेरे करीब

कुछ ख्वाब बुनें
हम भी देखें
कोई आवारा बादल
लुप्त सा होता हुआ
डाली में फंसकर
जो लोटता

जा रहा
अपनत्व अपना
थोड़ा रोकर
और, थोड़ा सा
विहंसकर
हम भी देखें
पलकों के तले
बिखर जाना

यूँ ही कुछ
दूर तक
पत्तो की मानिंद
बन के हवा
हम भी कुछ
दूर बहे

पत्थर बनके कुछ चोट तेरी
हम भी सहें
नदीं के बीच पड़े रेत से
कुछ धुप गहें
मगर मैं भूल

गया साँस आखिरी है
मेरी, मैं तो बस
जाल में ही रह
गया हूँ
जो बुना था
मैंने अपने तार से
मुझको है संतोष

की एक
सूरज की
किरण
आ रही है
सामने
दरार से !

No comments: