कुछ क्षण की मुस्काने देकर, वो विरह व्यथा दे चले गए!
उन पीडाओं को सींच सींच कर मैं जी बहलाया करता हूँ!
जिस तट से तेरी नाव गयी, वह तट ही अब है मीत मेरा!
पर, लहरों का मुख चुम-चुम कर, वापिस आ जाता गीत मेरा!
घंटो उस निर्जन में, आशा के महल बनाया करता हूँ!
निस्तब्ध निशा में छेड़ के सरगम मीत बुलाया करता हूँ!
उफनते सागर सा यौवन यह, चहूं ओर बिखर कर जलता है!
घायल चाहों से जडित ह्रदय, अनबुझी आग सा जलता है!
कुछ कहे, अनकहे गीतों को, फ़िर से दुहराया करता हूँ!
सांसों के अनबोले स्वर में, थककर सो जाया करता हूँ!!
जिन विश्वासों के साथ पली, संचित स्मृतिया जीवन की!
वह डोरी जिसके साथ बंधी, सब आशाये पुलकित मन की!
बेदर्द हवा के झोंको से, मैं उन्हें बचाया करता हूँ!
कुछ गढ़-अनगढ़ सपनों में, स्वयं को बिखराया करता हूँ!!
जीने का क्या है, जीते है, सांसों का स्पंदन काफी है!
अवरुद्ध व्यथा से थकित हृदय में, गति का विभ्रम ही काफी है!
सावन की नशीली रातों से , यादों को चुराया करता हूँ!
और घाव हरे टूटे दिल के, बैठा सहलाया करता हूँ!!
Saturday, 1 November 2008
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