Saturday, 18 October 2008

वो हमको तड़पा रहे है

वो कुछ इस तरह से हमको तड़पा रहे है
के आते आते करीब,वो रास्ते से लौट कर जा रहे है
रोकना चाहते है हम उन्हें इसी लिए
किन किन बहानो से उन्हें समझा रहे है
कभी जानेजां, कभी जानेमन, कभी जाने बहार कह कर बुला रहे है
वो कुछ इस तरह से हमे तड़पा रहे है
कभी आ रहे है कभी जा रहे है
कभी हँस रहे है कभी शर्मा रहे है
पहले नाराज़ करके फिर ख़ुद ही मना रहे है
वो कुछ इस तरह से हमको मना रहे है
कभी आँखें दिखा रहे है
कभी ऑंखें चुरा रहे हैं
कभी हक़ जता डाट रहे हैं
फिर उसी पल शरारतो से ऑंखें झुखा रहे है
वो कुछ इस तरह से हमको तड़पा रहे हैं

उनका मस्ती भरी बातें करना
वो मोसम को रंगीन बना रहे हैं
और करते करते बातें खामोश होना देख कर
हम मन ही मन घबरा रहे हैं
वो कुछ इस तरह से हमको तड़पा रहे हैं

4 comments:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

स्वागत इस विशाल आकाश में, आपकी उड़ान नियमित हो यही कामना है

अभिषेक मिश्र said...

पहला नशा- पहला खुमार.
अच्छा प्रयास, शुभकामनाओं सहित स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

रचना गौड़ ’भारती’ said...

ब्लोगिंग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

tadaf milane ka maja kai guna kar deti hai
narayan narayan