Saturday, 20 February 2010

क्या मैं यह कभी कह पाऊँगा

क्या मैं तुमसे  यह कभी कह पाऊँगा
हाँ, तुम मुझे पसंद हो
मेरी धड़कन हो
मेरे खयालो में तुम ही छाई हुई हो
मेरा स्वपन मेरा ख्याल मेरी चेतना
सब में तुम ही तुम समाई हुई हो
फिर भी मैं,
क्या कभी कह पाऊँगा
की मैं तुम्हे भूलने के लिए
तुमसे दूर भागता हूँ
अपनी इच्छा चाहत सभी को एक तरफ करता हूँ
पर तुम उतना ही मेरे ऊपर छाई जा रही हो
क्या मैं यह कभी समझ पाऊँगा
मैं तुमसे ही दूर क्यों भागता हूँ
क्यूं जब भी मुझे यह अहसास होता है
की तुम मेरे पास आ रही हो
मैं उसी पल अपने को कैद कर लेता हूँ
मैं खुद को खुद के अन्दर छिपा लेता हूँ
क्यां मैं यह कभी खुद से कह पाऊँगा
की मैं जैसा भी हूँ जो भी हूँ अच्छा हूँ
पर नहीं शायद,
शायद मैं खुद को ही नापसंद हूँ
इसलिए मैं किसी को कह नहीं सकता
मेरी चाहत क्या है, मेरी इच्छा क्या है
मैं  खुद को नहीं कह पाता की मुझे पसंद क्या है
बाहर की दुनिया में मुझे सब चाहते है
पर अपने अन्दर मैं एक लड़ाई लड़ रहा हूँ
इसमें मैं हारता ही रहा हूँ
क्या मैं यह कभी कह पाऊँगा
मेरी लड़ाई में तुम मेरा साथ दो
शायद नहीं
क्योंकि जब भी कोई मेरे करीब आता है
मैं ओर भी तनहा हो जाता हूँ
उसे खोने का डर इतना होता है
उसे अपने सामने से जाते हुए देखता हूं
चलो जो भी है अच्छा ही है
बहार की दुनिया के लिए मैं अच्छा हूँ
पर अपने अन्दर मैं लड़ता ही रहूँगा
पर तुम मेरे अन्दर कभी ना आना
क्योंकि उसके बाद मैं जीतूंगा या हारूंगा
और मैं यह कभी सह नहीं सकता
क्योंकि जीत मेरी नहीं है और हारना मैंने सीखा नहीं है
शायद लड़ना ही मेरी नियति है
अपने आप से, अपने लिए अपनी प्रभुता के लिए
शायद तुम यह समझ सकोगी
मैं यह समझा सकूंगा
शायद नहीं
इसलिए क्या मैं यह कभी कह पाऊँगा
लेकिन मैं यह सुन भी नहीं पाऊँगा

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