Wednesday, 14 January 2009

एक हारने वाले की व्यथा

कही किसी जगह पर था कोई एक
ख़ुद से भागता हुआ , ख़ुद से हारा हुआ
कहीं किसी और के पास अपनी खुशी को तलाशता हुआ
अपने हर तरफ उसे नजर आता था
हार का महासागर लहराता हुआ
लेकिन जीत की इच्छा अपने मन में लिए
वो अपनी हर हार में जीत को तलाशता रहा
उसे मिली जीत हर बार टुकडो में
वो तलाशता रहा इसे पूरे में
फिर एक दिन
उसे हार - जीत में मजा आने लगा
अधूरापन उसके मन को भने लगा
उसके जीवन में बदलाव आने लगा
अचानक उसे उसकी पूर्णता नजर आने लगी
खुशी उसके कदम चूमने लगी
लेकिन ,
वो फिर भागने लगा
अपनी जमीन से दूर, चाहतो से दूर
चाहने वालो से दूर
उसे लगा, यह एक छलावा है भूलभुलैया है
हारना ही उसकी नियति है
ये जीत उसके जीवन में किधर से आ रही है
समय के इस मोड़ पर खड़ा वह
ख़ुद से यह सवाल कर रहा है
मैं भ्रमित क्यों हूँ, मुझे हार ही क्यो मिलती है
लेकिन चारो तरफ के सन्नाटे से
कोई जवाब नही आता
जीत उसके लिए बनी ही नही शायद,
वह कल भी हारा था,
वह आज भी हारेगा शायद
लेकिन इस हार के बावजूद वह फिर भागेगा
शायद अपने आप के लिए या अपनी खुशी के लिए
उसे मालूम है की हारना ही उसकी नियति है
पर यही हार एक दिन,
जीत का दीदार कराएगी
उसकी नियति में हारना ही हो
लेकिन जीत की उसकी इच्छा जिन्दा रहेगी
शायद यही उसकी जीत है
या,
हार के आगे सम्पूर्ण समर्पण
या यही उसकी जिन्दगी है शायद

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